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Wednesday, March 26, 2008

भिखारी कौन?(कहानी)

यह अक्सर ही होता था कि सुबह दुकान पर जाते समय मुझे आई0टी0ओ0 ब्रिज पार करने के बाद रिंग रोड़ पर मुड़ने से पहले रेड लाईट पर रूकना पड़ता था । यह लगभग नित्य का क्रम था कि एक चौदह-पंद्रह साल का लड़का मेरी कार साफ करने का उपक्रम करता था । कभी कुछ मांगता नहीं था । मुझे यह भीख मांगने के तरीकों में से एक लगता था । लेकिन मैंने उसे कभी कुछ नहीं दिया । मुझे शुरू से ही भिखारियों से चिढ़ रही है । इसलिये मैं उसे कुछ न दे कर गर्व महसूस करता था । फिर भी वह नियम से मेरा स्कूटर साफ करता था ।

मैं एक स्व-निर्मित व्यक्ति हूँ । पाकिस्तान छोड़ भारत आना पड़ा था । यह मेरा सौभाग्य ही था कि इतनी अव्यवस्था होने के बावजूद हमारे परिवार का कोई भी सदस्य कहीं खोया नहीं था । सब साथ ही थे । पहले कलकत्ता गये । वहाँ पर व्यवस्थित नहीं हो पाये तो दिल्ली चले आये । बचपन अभावों में बीता था । जब पाकिस्तान बना तो मैं लगभग पांच बरस का था । मार-काट की वारदातों की धुंधली यादें ज़हन में थीं । माँ बताती है कि मेरे मामाजी उन दिनों लाहौर में रहा करते थे । बंटवारे के समय अपने घर की छत पर हिम्मत करके चले तो गये, परन्तु बाल-बाल बचे । मकान कुछ इस तरह से बने थे कि खिड़की खोल कर कुछ देखना खतरे से खाली नहीं था । केवल हमारा ही मुहल्ला हिन्दुओं का था, जो चारों तरफ से मुसलमान मुहल्लों से घिरा हुआ था । लगता तो यूँ था जैसे माहौल शांत हो चला था, परन्तु फिर भी मन में खटका था । सो, मामाजी जवानी के जोश में, परन्तु एहतियात बरतते हुए, छत पर पहुंचे । जैसे ही उन्होने अपना सिर छत की मुंडेर के ऊपर करना चाहा, एक गोली उनके सिर के ऊपर से सनसनाती हुई निकल गई । यदि उनका सिर जरा भी ऊपर होता हो आज मामा जी हमारे बीच नहीं होते ।खैर, राम-राम करते दिन-रात निकल रहे थे । फिर एक दिन पता चला कि पाकिस्तानी फौजें फंसे हुए हिन्दुओं को निकालने के लिये आ रही हैं । सबके मन में शुबहा तो था ही । लेकिन क्या करते ? एक तरफ कुआँ तो दूसरी खाई । रहते हैं तो भी मरने का अंदेशा तो बना ही हुआ था । सो, घर के बड़ों ने फैसला लिया कि इन पाकिस्तानी फौजों पर भरोसा करना ही हालात के हिसाब से ठीक था । तो, बचपन में ऐसे महौल का सामना करने पर किसी के मन पर क्या असर होना चाहिये, मै कह नहीं सकता । लेकिन इतना अवश्य है कि मुझ पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा था ।

दिल्ली पहुंच कर शुरू-शरू में शरणार्थी होस्टल में रहे । शायद किचनल होस्टल कहते थे उसे । पिता पढ़े-लिखे नहीं थे । लाहौर में अच्छा व्यापार था । सो, दिन बहुत अच्छे कट रहे थे । मैं केवल पांच साल का था । यहाँ आ कर कैसे उन्होने हमारा पेट पाला था, यह वो ही जानते थे । रेलवे स्टेशन पर नाड़े बेचे । मूंगफली की रेहड़ी लगाई । चांदनी चौक में फुव्वारे पर पटरी लगा कर सामान बेचा । सुबह का खाना नसीब होता था तो रात के खाने का भरोसा नहीं था । पढ़े-लिखे तो थे नहीं । मामाजी दसवीं पास थे और लाहौर में नौकरी करते थे । परन्तु उनका भी पता नहीं लग रहा था । दो-तीन साल बाद पता लगा कि सरकार विस्थापितों को क्लेम के रूप में मकान-पैसा इत्यादि दे रही है । मैं अब आठ साल का हो चला था । परन्तु मुझमें तो इतनी समझ नहीं थी कि क्लेम का फार्म भर सकुँ । किसी भले आदमी की सहायता से क्लेम फार्म भरे गये । मकान मिला, सदर में दुकान मिली और कुछ पैसा । पिताजी ने सदर में चाय की दुकान खोली तो कुछ गुजर-बसर होने लगी । मैं भी स्कूल जाने लगा । खाली समय में निरन्तर पिता का हाथ बंटाता था । जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मुझमे पढ़ाई और परिपक्व होने के कारण दुनियादारी की समझ आती चली गई । धीरे-धीरे मुझे यूँ लगने लगा जैसे मुझमें व्यापार करने के प्रकृति-प्रदत्त गुण हैं । यह समझ आते ही मैंने पिताजी से प्रार्थना की कि मुझे अपने ढ़ंग से व्यापार करने दिया जाये । एक तो उनकी आयु, दूसरे संघर्षों की लम्बी दास्तान, उन्होने सहर्ष ही मुझे इज़ाजत दे दी ।

मैंने तत्काल ही सदर की दुकान बेची और लाजपत राय मार्किट में दुकान खरीद कर नये सिरे से व्यापार शुरू कर दिया । जल्द ही मैंने अपनी सूझबूझ से व्यापार इतना बढ़ा लिया कि प्रतिदिन हजारों का लेन-देन होने लगा ।

उस दिन मैं जरा जल्दी में था और एक पार्टी की दस हजार की पेमेंट करनी थी । परन्तु सर्दियों की वजह से कार स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सो, एक भद्दी सी गाली देकर स्कूटर ही निकाला । इस दिन भी संयोग से पुल पार करके लाल बत्ती ही मिली और वही लड़का कपड़ा लेकर मेरा स्कूटर साफ करने लगा । मैंने मन ही मन कहा - "साले स्कूटर साफ करने की वो भीख दूंगा जो आज तक कार साफ करने की नहीं दी ।" इतने में ही हरी बत्ती हो गई और मैंने झटके से स्कूटर आगे बढ़ा दिया । बेधयानी में देखा ही नहीं कि आगे गढ़ा था । इससे पहले कि मैं संभल पाता, स्कूटर गढ़े की वजह से उछला । परन्तु मैंने फिर भी संभाल लिया । स्कूटर थोड़ा आगे बढ़ा तो लगा कि पीछे से कोई आवाज दे रहा था - " साहब जी, साहब जी " । मैं मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि चलो आज तो इसके सब्र का बांध टूटा । आज तो जरूर ये पैसे मांग ही रहा होगा । सुनी, अनसुनी करके मैंने स्कूटर तेज कर दिया । पर पार्टी को पेमेंट करने के लिये जैसे ही हाथ जेब में डाला तो सन्न रह गया । पर्स जेब में नहीं था । उस समय दस हजार की बहुत कीमत हुआ करती थी । परेशान तो था लेकिन क्या करता । कहाँ ढूंढता ? अब तक तो किसी के हाथ भी लग चुका होगा । बुरे समय में सब तरह के ख्याल आते हैं । एक ख्याल ये भी आया कि कहीं ये उस गाड़ी साफ करने वाले की बद्-दुआ का फल तो नहीं था । बुझा-बुझा सा मन ले कर सारा दिन काम करता रहा । घर पर भी मूढ़ कुछ यूँ ही रहा । अगले दिन चलने से पहले सोचा कि आज उस लड़के को अवश्य कुछ दे दूँगा । कार जैसे ही लाल बत्ती पर रूकी, वह लड़का जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था ।

"सर, कल मैं आपको आवाज ही लगाता रहा । आपका ये पर्स ।"
मुझे काटो तो खून नहीं । परन्तु मन में शंका थी । क्या पता पैसे पूरे भी हैं या नहीं । इससे पहले कि मैं कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता, वह बोला - "गिन लीजिए सर, मैंने तो गिने भी नहीं ।" इतने में हरी बत्ती हो गई । मैंने झटके से उसे कार में बिठा लिया । पूछा - "कितने पढ़े-लिखे हो ?"
"आठवीं पास हूँ, सर ।"
"फिर कोई काम क्यों नहीं करते ?"
"यह भी तो काम ही है । मैं पैसे जोड़ कर कोई छोटी-मोटी रेहड़ी कर लूंगा ।"
इतने में हम दुकान पर पहुंच गये । मैंने उसके लिये चाय मंगाई । पैसे गिने तो पूरे दस हजार थे । मैंने पूछा - "तुम्हे मालूम है ये कितने पैसे हैं ।"
"नहीं सर", वह बोला ।
"पूरे दस हजार हैं । अच्छा यह बताओ, तुम ये सारे पैसे रख भी तो सकते थे ।"
"नहीं सर । मैं कोई चोर-उचक्का नहीं ।"
"अच्छा, रेहड़ी के लिये लगभग कितने पैसे लगेगें ?"
"यही कोई चार-पाँच सौ ।"
"तो फिर ये रखो पाँच सौ रूपये । अपने लिये रेहड़ी खरीद लेना ।"
"नहीं सर, मैं भीख नहीं लेता ।"
मैं आवाक रह गया । यह मेरे व्यक्तित्व का प्रतिरूप ही तो था । केवल समय का फेर था । "अच्छा," मैंने सोचते हुए कहा -"मेरे यहाँ काम करोगे? तुम्हे लगे कि अपना काम शुरू कर सकते हो तो छोड़ देना ।" मैं उसके इमानदार होने का भी नाजायज़ फायदा नहीं उठाना चाहता था । वह सहर्ष ही मान गया । उसने लगभग दो वर्ष तक मेरे पास काम किया । मैं उसकी अधिक से अधिक मदद करना चाहता था । लेकिन वह विनम्रता के साथ अस्वीकार कर देता था । जिस हिसाब से काम करता था, उसी हिसाब से पैसे लेता था । आज वह अपना अलग से व्यापार करता है । मुझी से सामान लेकर वह रिटेल में बेचता है । परन्तु मैं जब भी उसके बारे में सोचता हूँ तो तय नहीं कर पाता कि कौन भिखारी था - वह या मैं । -

5 Comments:

Blogger Udan Tashtari said...

बड़ा मुस्किल है यह तय कर पाना..सब जूझ रहे हैं इससे.

March 26, 2008 at 9:45 AM  
Blogger राज भाटिय़ा said...

डा0अनिल चडड़ा जी, बहुत खुब,सच मे ऎसे आदमी मिलने मुस्किल हे, लेकिन अभी भी ईमान्दारी मरी नही,अगली बार जब भी वो आप की दुकान पर समान लेने आये तो हमारी नमस्ते जरुर बोलना. ओर भिखारी तो हम सब ही हे,बस झुठी अकड मे रहते हे.

March 26, 2008 at 1:36 PM  
Blogger डॉ० अनिल चड्डा said...

कहानी पसन्द आने का शुक्रिया, उड़नजी एवं भाटियाजी ।

March 26, 2008 at 11:02 PM  
Blogger Unknown said...

दोस्त जिस्मे जितनी बुधि होती हैवह उसी के अनुसार सोच्ता है

October 24, 2008 at 9:45 PM  
Blogger ATULGAUR (ASHUTOSH) said...

सब समय का फेर है

December 10, 2008 at 12:35 AM  

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