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Friday, February 13, 2009

भजन

मुझको दर्पण ऐसा दे दो ना,
जिसमें तेरी तस्वीर दिखे,
सोते-जगते इन अँखियों को,
मुझको तू रघुबीर दिखे!

सात जन्म का पापी हूँ,
इस जन्म भी पाप कमाया है,
नाम तेरा तारे दुनिया से,
समझ देर से आया है,
कुछ ऐसा प्रभुजी कर देना,
तेरे दर पर मेरा नीड़ बने !

जन्म बड़ा अनमोल प्रभु था,
मैंने बेकार गवाँया है,
विषयों में फँस करके मैंने,
अपना मान घटाया है,
हाथ शीश पर रख दो ना,
थोड़ी तो तकदीर बने !

काम, क्रोध, मोह, लोभ सभी ने,
इन्द्रजाल बनाया था,
मेरी परीक्षा लेने को क्या,
तूने जाल बिछाया था,
पा चुका बहुत सजा हूँ दाता,
कोई अब तदबीर बने !

भजन

Monday, May 26, 2008

मूल्य फिर बदलेंगें !

"संस्कृति" और "मूल्य" एक दूसरे के पर्याय हैं ।


संस्कृति का तात्पर्य व्यक्ति के उन गुणों से है जिन्हे वह शिक्षा द्वारा, अपनी बुद्धि का प्रयोग करके, स्वयँ के प्रयत्नों द्वारा प्राप्त करता है । दूसरे शब्दों में संस्कृति का सम्बंध व्यक्ति की बुद्धि, स्वभाव एवं मनोवृतियों से जुड़ा रहता है । संस्कृति शब्द एक प्रशंसा-सूचक शब्द है क्योंकि उसकी व्युत्पति "संस्कृत" विशेषण से हुई है । इसलिये, संस्कृति को हम मानव के उन विशेष गुणों के समूह के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं जिनके द्वारा वह समाज में अपना स्थान बनाता है या स्वयं को प्रतिष्ठित करता है । यह गुण मानन की उन प्रकृति-प्रदत्त विशेषताओं से भिन्न होते हैं, जो उसके बाहरी व्यक्तित्व को प्रदर्शित करते हैं ।

समाज व्यक्तियों का समूह है । चूँकि व्यक्ति समाज में रहता है, इसलिये नित नये व्यक्ति के संसर्ग में आना अवश्यम्भावी है । एक-दूसरे के संसर्ग में आने से निश्चय ही दोनों व्यक्तियों पर एक-दूसरे के स्वभाव एवं मनोवृतियों का कुछ प्रभाव तो पड़ेगा ही । अब यहाँ व्यक्ति का अपना मौलिक स्वभाव एवं मनोवृति ही उसे किसी दूसरे व्यक्ति के अच्छे या बुरे स्वभाव एवं मनोवृति को ग्रहण करने से प्रेरित करता है या उसे रोकता है । इन सब में, वह जिस वातावरण में पला है, रहा है, जिन-जिन के संसर्ग में आया है, जैसी शिक्षा ग्रहण की है तथा उसकी अपनी मनोवृति काम करते हैं । यह उसकी इच्छा-शक्ति पर निर्भर करता है कि वह कौन सा रास्ता चुने । यह आवश्यक नहीं कि किसी बुरे व्यक्ति के संसर्ग में आने से कोई व्यक्ति उससे प्रेरणा प्राप्त कर वैसा हो ही जाये । ऐसा भी तो हो सकता है कि अच्छे व्यक्ति के संसर्ग में आने से बुरा व्यक्ति प्रेरणा प्राप्त कर अपना रास्ता छोड़ दे । और, यह भी संभव है कि दोनों ही तटस्थ रह कर अपने-अपने रास्ते बिना किसी टकराव के चलते रहें । इन्हीं तरह के कई कारणों से व्यक्तिगत मूल्य बनते-बदलते रहते हैं ।
यह तो थी व्यक्तिगत मूल्यों की बात । चूंकि समाज व्यक्तियों का समूह है, इसलिये उस समाज के व्यक्तियों के व्यक्तिगत मूल्यों का प्रभाव निश्चय ही उस समाज के मूल्यों में दृष्टिगोचर होगा । एक समाज की संस्कृति, उसके मूल्यों, की पहचान उसमें अधिकतर प्रचलित मूल्यों से ही होती है । जैसे एक व्यक्ति के स्वभाव एवं मनोवृति, जिससे उसके मूल्यों का निर्माण होता है, का कुछ प्रभाव उसके संसर्ग में आने वाले व्यक्ति पर पड़ना निश्चित है, उसी प्रकार भिन्न समाजों के आपस में संसर्ग होने से एक समाज में प्रचलित मूल्यों का प्रभाव दूसरे समाज पर पड़ेगा ही । दोनों ही समाज व्यक्तियों का समूह
हैं । एक दूसरे के संसर्ग में आने से कुछ व्यक्तियों को अपने स्वभाव अपनी मनोवृतियों के अनुसार दूसरे समाज के मूल्य अच्छे एवं अनुकूल लगेगें और वह उन्हे अपना लेगा । कुछ को नहीं और वह उन्हे नकार देगा । वह व्यक्ति निश्चित ही अपने समाज के दूसरे व्यक्तियों को अपने नये मूल्यों से प्रभावित कर उनका वर्चस्व स्थापित करना चाहेगा ताकि उसकी ऐसी सोच को सामाजिक मान्यता मिले । और नये मूल्य, चाहे वह अच्छे हैं या बुरे, सही हैं या गल्त, एक संक्रामक रोग की तरह फैलते चले जाते हैं । इसी तरह एक समाज की संस्कृति का प्रभाव दूसरे समाज की संस्कृति पर पड़ता चला जाता है ।
आज यह स्थिति है कि हरेक समाज के मूल्य बहुत जल्दी-जल्दी बदलते चले जा रहे हैं । अनेकानेक कारणों में से जो महत्वपूर्ण कारण हैं, उनमें से एक तरफ तो बंधन इतने कम हो गये हैं और रास्ते इतने छोटे हो गये हैं, और दूसरी तरफ व्यक्तिगत आकांक्षाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि किसी को किसी के बारे में सोचने के लिये समय ही नहीं है । इसलिये नित नये मूल्य, अपनी-अपनी सुविधानुसार बनते और बिगड़ते रहते हैं । कहीं कोई शाश्वत मूल्य दिखाई ही नहीं देते हैं । जो लोग आज भी शाश्वत मूल्यों से चिपके हुए हैं, उनकी गिनती नहीं के बराबर है । "मूल्य" के अर्थ "कीमत" से हरेक "मूल्य" की कीमत चुकाई जा सकती है । सही मायनों में आज "मूल्य" का अर्थ चरितार्थ हो रहा है ।
प्रकृति का एक नियम है। यहाँ कोई भी वस्तु नाशवान नहीं है । बस स्वरूप बदलता रहता है । जिसका उत्थान होगा, उसका पतन भी अवश्यम्भावी है । पतन की भी एक सीमा होती है, और एक बिन्दु पर, जो पतन का चरमोत्कर्ष हो, पहुँच कर, अपने-आन से घृणा होना स्वाभाविक है । फिर, कोई भी वस्तु अधिक मात्रा में अच्छी नहीं होती और नुकसान करती है । यह तो हम देख ही रहे हैं कि जहाँ हमने पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो कर पाश्चात्य मूल्यों को अंधाधुंध अपनाना शुरू कर दिया है, वहीं पश्चिम वालों ने अपने मूल्यों को खोखला पा, एक चरम सीमा तक पहुँचने के बाद, उनका बहिष्कार कर भारतीय मूल्यों की और रुख कर लिया है । इसलिये, आज की स्थिति निराशाजनक नहीं है । केवल आने वाले कल की सूचक मात्र है । चूँकि "मूल्यों" का स्वरूप बदलता रहता है, एक समय आयेगा जब प्रचलित मूल्य फिर से बदलेंगें ।

Wednesday, March 26, 2008

भिखारी कौन?(कहानी)

यह अक्सर ही होता था कि सुबह दुकान पर जाते समय मुझे आई0टी0ओ0 ब्रिज पार करने के बाद रिंग रोड़ पर मुड़ने से पहले रेड लाईट पर रूकना पड़ता था । यह लगभग नित्य का क्रम था कि एक चौदह-पंद्रह साल का लड़का मेरी कार साफ करने का उपक्रम करता था । कभी कुछ मांगता नहीं था । मुझे यह भीख मांगने के तरीकों में से एक लगता था । लेकिन मैंने उसे कभी कुछ नहीं दिया । मुझे शुरू से ही भिखारियों से चिढ़ रही है । इसलिये मैं उसे कुछ न दे कर गर्व महसूस करता था । फिर भी वह नियम से मेरा स्कूटर साफ करता था ।

मैं एक स्व-निर्मित व्यक्ति हूँ । पाकिस्तान छोड़ भारत आना पड़ा था । यह मेरा सौभाग्य ही था कि इतनी अव्यवस्था होने के बावजूद हमारे परिवार का कोई भी सदस्य कहीं खोया नहीं था । सब साथ ही थे । पहले कलकत्ता गये । वहाँ पर व्यवस्थित नहीं हो पाये तो दिल्ली चले आये । बचपन अभावों में बीता था । जब पाकिस्तान बना तो मैं लगभग पांच बरस का था । मार-काट की वारदातों की धुंधली यादें ज़हन में थीं । माँ बताती है कि मेरे मामाजी उन दिनों लाहौर में रहा करते थे । बंटवारे के समय अपने घर की छत पर हिम्मत करके चले तो गये, परन्तु बाल-बाल बचे । मकान कुछ इस तरह से बने थे कि खिड़की खोल कर कुछ देखना खतरे से खाली नहीं था । केवल हमारा ही मुहल्ला हिन्दुओं का था, जो चारों तरफ से मुसलमान मुहल्लों से घिरा हुआ था । लगता तो यूँ था जैसे माहौल शांत हो चला था, परन्तु फिर भी मन में खटका था । सो, मामाजी जवानी के जोश में, परन्तु एहतियात बरतते हुए, छत पर पहुंचे । जैसे ही उन्होने अपना सिर छत की मुंडेर के ऊपर करना चाहा, एक गोली उनके सिर के ऊपर से सनसनाती हुई निकल गई । यदि उनका सिर जरा भी ऊपर होता हो आज मामा जी हमारे बीच नहीं होते ।खैर, राम-राम करते दिन-रात निकल रहे थे । फिर एक दिन पता चला कि पाकिस्तानी फौजें फंसे हुए हिन्दुओं को निकालने के लिये आ रही हैं । सबके मन में शुबहा तो था ही । लेकिन क्या करते ? एक तरफ कुआँ तो दूसरी खाई । रहते हैं तो भी मरने का अंदेशा तो बना ही हुआ था । सो, घर के बड़ों ने फैसला लिया कि इन पाकिस्तानी फौजों पर भरोसा करना ही हालात के हिसाब से ठीक था । तो, बचपन में ऐसे महौल का सामना करने पर किसी के मन पर क्या असर होना चाहिये, मै कह नहीं सकता । लेकिन इतना अवश्य है कि मुझ पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा था ।

दिल्ली पहुंच कर शुरू-शरू में शरणार्थी होस्टल में रहे । शायद किचनल होस्टल कहते थे उसे । पिता पढ़े-लिखे नहीं थे । लाहौर में अच्छा व्यापार था । सो, दिन बहुत अच्छे कट रहे थे । मैं केवल पांच साल का था । यहाँ आ कर कैसे उन्होने हमारा पेट पाला था, यह वो ही जानते थे । रेलवे स्टेशन पर नाड़े बेचे । मूंगफली की रेहड़ी लगाई । चांदनी चौक में फुव्वारे पर पटरी लगा कर सामान बेचा । सुबह का खाना नसीब होता था तो रात के खाने का भरोसा नहीं था । पढ़े-लिखे तो थे नहीं । मामाजी दसवीं पास थे और लाहौर में नौकरी करते थे । परन्तु उनका भी पता नहीं लग रहा था । दो-तीन साल बाद पता लगा कि सरकार विस्थापितों को क्लेम के रूप में मकान-पैसा इत्यादि दे रही है । मैं अब आठ साल का हो चला था । परन्तु मुझमें तो इतनी समझ नहीं थी कि क्लेम का फार्म भर सकुँ । किसी भले आदमी की सहायता से क्लेम फार्म भरे गये । मकान मिला, सदर में दुकान मिली और कुछ पैसा । पिताजी ने सदर में चाय की दुकान खोली तो कुछ गुजर-बसर होने लगी । मैं भी स्कूल जाने लगा । खाली समय में निरन्तर पिता का हाथ बंटाता था । जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मुझमे पढ़ाई और परिपक्व होने के कारण दुनियादारी की समझ आती चली गई । धीरे-धीरे मुझे यूँ लगने लगा जैसे मुझमें व्यापार करने के प्रकृति-प्रदत्त गुण हैं । यह समझ आते ही मैंने पिताजी से प्रार्थना की कि मुझे अपने ढ़ंग से व्यापार करने दिया जाये । एक तो उनकी आयु, दूसरे संघर्षों की लम्बी दास्तान, उन्होने सहर्ष ही मुझे इज़ाजत दे दी ।

मैंने तत्काल ही सदर की दुकान बेची और लाजपत राय मार्किट में दुकान खरीद कर नये सिरे से व्यापार शुरू कर दिया । जल्द ही मैंने अपनी सूझबूझ से व्यापार इतना बढ़ा लिया कि प्रतिदिन हजारों का लेन-देन होने लगा ।

उस दिन मैं जरा जल्दी में था और एक पार्टी की दस हजार की पेमेंट करनी थी । परन्तु सर्दियों की वजह से कार स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सो, एक भद्दी सी गाली देकर स्कूटर ही निकाला । इस दिन भी संयोग से पुल पार करके लाल बत्ती ही मिली और वही लड़का कपड़ा लेकर मेरा स्कूटर साफ करने लगा । मैंने मन ही मन कहा - "साले स्कूटर साफ करने की वो भीख दूंगा जो आज तक कार साफ करने की नहीं दी ।" इतने में ही हरी बत्ती हो गई और मैंने झटके से स्कूटर आगे बढ़ा दिया । बेधयानी में देखा ही नहीं कि आगे गढ़ा था । इससे पहले कि मैं संभल पाता, स्कूटर गढ़े की वजह से उछला । परन्तु मैंने फिर भी संभाल लिया । स्कूटर थोड़ा आगे बढ़ा तो लगा कि पीछे से कोई आवाज दे रहा था - " साहब जी, साहब जी " । मैं मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि चलो आज तो इसके सब्र का बांध टूटा । आज तो जरूर ये पैसे मांग ही रहा होगा । सुनी, अनसुनी करके मैंने स्कूटर तेज कर दिया । पर पार्टी को पेमेंट करने के लिये जैसे ही हाथ जेब में डाला तो सन्न रह गया । पर्स जेब में नहीं था । उस समय दस हजार की बहुत कीमत हुआ करती थी । परेशान तो था लेकिन क्या करता । कहाँ ढूंढता ? अब तक तो किसी के हाथ भी लग चुका होगा । बुरे समय में सब तरह के ख्याल आते हैं । एक ख्याल ये भी आया कि कहीं ये उस गाड़ी साफ करने वाले की बद्-दुआ का फल तो नहीं था । बुझा-बुझा सा मन ले कर सारा दिन काम करता रहा । घर पर भी मूढ़ कुछ यूँ ही रहा । अगले दिन चलने से पहले सोचा कि आज उस लड़के को अवश्य कुछ दे दूँगा । कार जैसे ही लाल बत्ती पर रूकी, वह लड़का जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था ।

"सर, कल मैं आपको आवाज ही लगाता रहा । आपका ये पर्स ।"
मुझे काटो तो खून नहीं । परन्तु मन में शंका थी । क्या पता पैसे पूरे भी हैं या नहीं । इससे पहले कि मैं कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता, वह बोला - "गिन लीजिए सर, मैंने तो गिने भी नहीं ।" इतने में हरी बत्ती हो गई । मैंने झटके से उसे कार में बिठा लिया । पूछा - "कितने पढ़े-लिखे हो ?"
"आठवीं पास हूँ, सर ।"
"फिर कोई काम क्यों नहीं करते ?"
"यह भी तो काम ही है । मैं पैसे जोड़ कर कोई छोटी-मोटी रेहड़ी कर लूंगा ।"
इतने में हम दुकान पर पहुंच गये । मैंने उसके लिये चाय मंगाई । पैसे गिने तो पूरे दस हजार थे । मैंने पूछा - "तुम्हे मालूम है ये कितने पैसे हैं ।"
"नहीं सर", वह बोला ।
"पूरे दस हजार हैं । अच्छा यह बताओ, तुम ये सारे पैसे रख भी तो सकते थे ।"
"नहीं सर । मैं कोई चोर-उचक्का नहीं ।"
"अच्छा, रेहड़ी के लिये लगभग कितने पैसे लगेगें ?"
"यही कोई चार-पाँच सौ ।"
"तो फिर ये रखो पाँच सौ रूपये । अपने लिये रेहड़ी खरीद लेना ।"
"नहीं सर, मैं भीख नहीं लेता ।"
मैं आवाक रह गया । यह मेरे व्यक्तित्व का प्रतिरूप ही तो था । केवल समय का फेर था । "अच्छा," मैंने सोचते हुए कहा -"मेरे यहाँ काम करोगे? तुम्हे लगे कि अपना काम शुरू कर सकते हो तो छोड़ देना ।" मैं उसके इमानदार होने का भी नाजायज़ फायदा नहीं उठाना चाहता था । वह सहर्ष ही मान गया । उसने लगभग दो वर्ष तक मेरे पास काम किया । मैं उसकी अधिक से अधिक मदद करना चाहता था । लेकिन वह विनम्रता के साथ अस्वीकार कर देता था । जिस हिसाब से काम करता था, उसी हिसाब से पैसे लेता था । आज वह अपना अलग से व्यापार करता है । मुझी से सामान लेकर वह रिटेल में बेचता है । परन्तु मैं जब भी उसके बारे में सोचता हूँ तो तय नहीं कर पाता कि कौन भिखारी था - वह या मैं । -

Tuesday, February 12, 2008

बच्चों का कोना

(1)

काली मक्खी, काली मक्खी,
तूने क्यों मेरी टाफी चखी,
तेरे पर जो काटूँ रानी,
याद आयेगी तुझको नानी,
भूल जायेगी घर का रस्ता,
नहीं पड़ेगा सौदा सस्ता,
इसलिये मेरी बात ये मानो,
दूजे की चीज पर नजर न डालो ।
(2)
छोटे-छोटे हम हैं बच्चे,
मत समझो हमें अक्ल के कच्चे,
हम अलबेले, नहीं अकेले,
बात-बात पर लड़ करके भी,
साथ रहें हम, सब साथ चलें,
देश में फूट पड़ाने वालो,
घर के टुकड़े बंटाने वालो,
अपनी अक्ल न काम करे तो,
बच्चों से कुछ अक्ल जुटा लो ।
(3)
रिम-झिम, रिम-झिम पानी बरसा,
मेंढ़क नहीं पानी को तरसा,
टर्र, टर्र, टर्र, टर्र, शोर मचाये,
उछले-कूदे नाच दिखाये,
ठंड बड़ी मुशिकल से काटी,
गर्मी नहीं है साथ निभाती,
पानी की बौछार जो आई,
खिल गया मन, पा मन भाता साथी ।

Thursday, December 27, 2007

काम की बातें!

(1) क्रोध का बचाव करना ही क्रोध की खुराक है ।

(2)जो सीक्रेट रखता है, वह भटकने वाला है ।

(3)मतार्थी कभी भी आत्मार्थी नहीं होते ।

(4) अज्ञानता को स्वोकार करे, वही सच्चा ज्ञानमार्ग है ।

(5) जैसे-जैसे खुद की गल्तियाँ दिखती जायेंगी, वैसे-वैसे संसार विस्मृत होता जाएगा और समाधि रहेगी ।

-दादा भगवान

Monday, October 1, 2007

चन्दा मामा की नानी

आसमान पर उड़ने वाले,
हम हैं नन्हे-मुन्हे तारे ।

छोटी सी इक बात बताऊँ,
चंदा मामा के घर जाऊँ,
चंदा मामा की नानी से,
हलवा-पूरी-लड्डू खाऊँ ।

पर बोले है अच्छी नानी,
करना नहीं कभी शैतानी,
जो बन जाओ अच्छे बच्चे,
सुनोगे मुझसे रोज़ कहानी ।

पढ़-लिख कर राजा बन जाओ,
मम्मी-डैडी के गुण गाओ,
अच्छी-अच्छी चीजें लेने,
फिर तुम रोज मेरे घर आओ।